Monday, July 16, 2007

क्या धर्म की आवश्यकता है ?

बन्दर से इन्सान बनते हुए हम जानवरों को इस मामले में पीछे छोड़ गए की हम प्रकृति को अंधों की तरह पूजते रहने की बजाये अपनी ज़रूरत के हिसाब से थोड़ी श्रध्दा और थोड़ी प्रतियोगिता के साथ उसमें अपने उत्स को भी याद रखने कि कोशिश करते रहे एवं लगातार उसी से जूझते हुए अपने ऊपर उसके अंकुश को तोड़ने कि कोशिश करते रहे ;पहले-पहल हम प्रकृति-मात्र को ही ईश्वर समझ कर उसके अलग स्वरूपों का मानवीयकरण किया करते थे।

प्रकृति पर प्रतियोगी के इस आरोपण से हम अपने आप को प्रकृति से छेड़छाड़ करने के बाद-में-देखे-जाने-वाले 'नैचुरालिस्ट गिल्ट' से तो बचे ही ,साथ ही ज्यों-ज्यों प्रकृति की हमारी समझ बढती गयी त्यों-त्यों हमारे धर्म शक्सियत-केंद्रित भी होते गए:जहाँ अब तक ईश्वरत्व (प्रकृति) पर मानवीयकरण (यथा इंद्र-रूप) थोपा जाता था वहीं अब इंसानों पर भगवान होने का आरोप लगने लगा । खैर , मूलतः धर्म का यही प्रयोजन था (जैसा कि बताया जाता है) कि मनुष्यों को ऊंचे आदर्शों का पाठ पढ़ाते हुए वह उसे उसकी मूल प्रकृति से जुड़ने की राह बतलाती रहे । बात यहीं ठहर जाती तो कोई बात ही ना होती लेकिन बात इतनी सी नहीं रहकर बहुत बड़ी बात हो गयी - धर्म बन गया गले का फंदा क्योंकि आदर्शों से ज़्यादा ज़रूरी हो गयी धर्मों की रीतीयां, मनुष्य की उसकी मूल प्रकृति के 'दर्शन' कि अभिलाषा से ज़्यादा प्रबल हो उठी अपने मंदिर (यानी कि रिवाजों का रू

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