Tuesday, July 17, 2007

चलते हुए मनुष्य सदियों से सत्य की खोज कर रहा है इस उम्मीद में कि खोजने वाले ऐसे किसी सत्य का अस्तित्त्व है । ऐसे में अगर उसे पता चले कि उसके खोज कि इस यात्रा का अंत ही नही(बेमुकाम) - न कोई अच्छा (जन्नत) और न कोई बुरा ही (जहन्नुम) , तो फिर मेहनत किस लिए(जद्दोजेहद) । और अगर कल को उसे पता चले कि जिस डोर को पकड़ कर ("उसी की" यानी अल्लाह या भगवन) वह सत्य की खोज कि आशा कर रहा है वही असत्य है (फजूलियत) तो क्या तब भी वह उसी श्रद्घा से , उसी भावना से पूजा करेगा (सजदा) ।
चलते हुए सोच रहा हूँ ,
चलने से मिलेगा क्या ?

चलते-चलते थक जाऊँगा ,
पानी के लिए कोई पूछेगा क्या ?

मंज़िल मिले-ना-मिले ,भरोसा
कभी कोई इसका दे सकेगा क्या ?

चलना , और सिर्फ चलना ही अगर
जिन्दगी है ,कोई इससे छुटकारा देगा क्या ?

चले गए कितने राही , लौट के
अपना हाल-ए-बयां कोई देगा क्या ?

कोई न खबर अगर उन्हीं की ,
फिर उम्मीद का इन्सान करेगा क्या ?

बेमुकाम जो , जन्नत न जिसकी जहन्नुम
गुमनाम , ऐसी जद्दोजहद का मतलब क्या ?

हो इल्म अगर उसी की फ़ज़ूलियत का ,
तू फिर भी रोज़ सजदा करेगा क्या ?

Monday, July 16, 2007

क्या धर्म की आवश्यकता है ?

बन्दर से इन्सान बनते हुए हम जानवरों को इस मामले में पीछे छोड़ गए की हम प्रकृति को अंधों की तरह पूजते रहने की बजाये अपनी ज़रूरत के हिसाब से थोड़ी श्रध्दा और थोड़ी प्रतियोगिता के साथ उसमें अपने उत्स को भी याद रखने कि कोशिश करते रहे एवं लगातार उसी से जूझते हुए अपने ऊपर उसके अंकुश को तोड़ने कि कोशिश करते रहे ;पहले-पहल हम प्रकृति-मात्र को ही ईश्वर समझ कर उसके अलग स्वरूपों का मानवीयकरण किया करते थे।

प्रकृति पर प्रतियोगी के इस आरोपण से हम अपने आप को प्रकृति से छेड़छाड़ करने के बाद-में-देखे-जाने-वाले 'नैचुरालिस्ट गिल्ट' से तो बचे ही ,साथ ही ज्यों-ज्यों प्रकृति की हमारी समझ बढती गयी त्यों-त्यों हमारे धर्म शक्सियत-केंद्रित भी होते गए:जहाँ अब तक ईश्वरत्व (प्रकृति) पर मानवीयकरण (यथा इंद्र-रूप) थोपा जाता था वहीं अब इंसानों पर भगवान होने का आरोप लगने लगा । खैर , मूलतः धर्म का यही प्रयोजन था (जैसा कि बताया जाता है) कि मनुष्यों को ऊंचे आदर्शों का पाठ पढ़ाते हुए वह उसे उसकी मूल प्रकृति से जुड़ने की राह बतलाती रहे । बात यहीं ठहर जाती तो कोई बात ही ना होती लेकिन बात इतनी सी नहीं रहकर बहुत बड़ी बात हो गयी - धर्म बन गया गले का फंदा क्योंकि आदर्शों से ज़्यादा ज़रूरी हो गयी धर्मों की रीतीयां, मनुष्य की उसकी मूल प्रकृति के 'दर्शन' कि अभिलाषा से ज़्यादा प्रबल हो उठी अपने मंदिर (यानी कि रिवाजों का रू

Thursday, July 5, 2007

Please be biased.

Enough of this masculine idea of value neutrality and objectivity.it's high time we switched over to the much derided,despised and loathed ideal of feminine subjectivity.from Socrates to Rosseau to Ram-all have tacitly or shamelessly discarded the emotion of subjective thought and held it in contempt in the name of some higher ideal, some mystic social good:history shows that despite all such elevated moral endorsements men(this is a gender use not a general use:Taslima Nasrin rightly points out the male-handicap of our human language in her Bengali book Nirbachit Column) in this world have more often than not used these 'truths' to fool us.

But as Aristotle and Buddha alike kept emphasising that virtue is the middle path, I don't stupidly intend to do away with this objectivity wholly-after all,it has made the real contribution in not only giving rise to feminism but also in increasing the number of us male-feminists(oxymoron?).when pursuing an analytical enquiry of knowledge,do stick to the maxim of objectivity;after that make a conclusion that's subjective in nature.Marx long ago exposed the truth of all hitherto philosophies when he said they were simply describing everything without really desiring ;our descriptions should niether remain extraneous nor purely from-a-distance because what is such knowledge worth of?